बुधवार, 4 अगस्त 2010

ठहाकों से लबरेज़ एक शानदार ब्रांडिग-अमूल













बीते चालीस बरसों में प्रिंट और आउटडोर विज्ञापन अभियानों में जिस एक ब्रांड ने सबसे ज़्यादा मुस्कुराहटें,ठहाके और प्रशंसा बटोरी है वह है हम सबकी ज़िन्दगी का ख़ास दोस्त अमूल. अटरली-बटरली अमूल कहते हुए वे जिस ख़ालिस भारतीय परिवेश में बात को कह जाते हैं वह बेमिसाल है. लगभग हर बड़े मेट्रो में अमूल के होर्डिंग्स मिल जाएंगे. आर्थिक मंदी के इन पाँच-दस सालों में अमूल ने अपने एडवरटाइज़िंग बजट में काफ़ी बचत की है और अब उसके होर्डिंग्स शहर के प्रमुख स्थानों पर नज़र आने के बजाय ऐसी लोकेशन्स पर नज़र आ रहे हैं जो किराये की दृष्टि से अपेक्षाकृत से सस्ते हैं. इस वजह से अमूल की विज़िबलिटी तो कम हुई है लेकिन अमूल की बात को कहने वाली अटरली-बटरली गुड़िया की फ़ैन-फ़ॉलोइंग इतनी ज़बरदस्त है कि उसके क़द्रदान कई बार बाक़यदा देखने जाते हैं कि अब अमूल नया क्या कह रहे हैं.











मेरे अज़ीज़ रंगकर्मी मित्र और जानेमाने एडमेन भरत दाभोलकर(जिन्हें आप काफ़ी धारावाहिकों में देख भी चुके हैं) किसी ज़माने में अमूल के अभियान की रचना प्रक्रिया का अहम हिस्सा रहे हैं.वे पहले डाकून्हा एडवरटाइज़िंग में कार्यरत रहे हैं. इसी एजेन्सी ने बरसों-बरस अमूल का एकाउंट हैण्डल किया है. अमूल विज्ञापन अभियान के ख़ास बिंदु इस प्रकार रहे हैं:



-देश-दुनिया में होने वाली हलचलों पर नज़दीक़ी निगाह रखते हुए हल्के-फ़ुल्के अंदाज़ में कुछ ऐसा कह जाना जो संदेश भी दे और मुस्कुराहट भी लाए.

- अमूल ने अपने ब्रांड को जनमानस में दर्ज़ करने के लिये विज्ञापन के मूल सिंध्दांत से कभी समझौता नहीं किया और हमेशा अपने क्रिएटिव एलीमेंट्स को नहीं बदला, यथा अमूल के लोगो तथा उसकी पंच लाइन (अटरली-बटरली) लिखने का अंदाज़ और उसका शुभंकर यानी....अटरली-बटरली गर्ल

-अमूल ने कभी भी किसी भी ब्रांड पर्सनेलिटी को अपने प्रमोशन्स में इस्तेमाल नहीं किया. हमेश अटरली-बटरली गर्ल ही उसकी पर्सनेलिटी या ब्रांड एम्बेसेडर बनी रही. अमूल का मानना है कि जिस तेज़ी से सेलिब्रिटीज़ की फ़ॉलोइंग में बदलाव आता है उसको देखते हुए लम्बे समय तक एक सितारे को लेकर ब्रांड रीकॉल देना मुश्किल होता है.

-सरल भाषा,देसी परिवेश,समसामयिक घटनाक्रम और टी.आई (टारगेट ऑडियंस) के रूप में बच्चे और ग्रहिणी तक अपनी बात पहुँचाने के लिये अटरली-बटरली गर्ल से बेहतर शुभंकर और क्या हो सकता था.



कोशिश करूंगा कि आपको फ़िर कभी अमूल के बहुत पुराने इश्तेहारों  भी दिखाऊँ. आशा है मेरी इस पोस्ट से आपके चेहरे पर भी मुस्कुराहट आएगी क्योंकि टेस्ट ऑफ़ इण्डिया जो है..अटरली-बटरली अमूल.

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

सिर्फ़ 1411 बाक़ी… चंद दिनों में याद हो गया ये आँकड़ा.

इन दिनों आप एयरसेल द्वारा चलाए जा रहे अभियान सेव अवर टाइगर्स की मार्मिक फ़िल्म टीवी चैनल्स पर ज़रूर देख रहे होंगे. कैसे एक मासूम शावक घबराया या अपनी मांद में छुपा बैठा अपनी माँ का इंतज़ार कर रहा है. शानदार फ़ोटोग्राफ़ी ,कबीर बेदी के प्रभावी वॉइस ओवर (एड में सुनाई देने वाली आवाज़ ) और नायाब लोकेशन्स से लकदक ये फ़िल्म आख़िर में जब कहती है कि मुल्क में सिर्फ़ 1422 शेर बाक़ी रह गए हैं तो एक लम्हा दर्शक चौंक भी जाता है और चिंतित भी दिखाई देता है.वाक़ई यह एडवरटाइज़िंग का कमाल है कि चंद दिनों में हमें 1422 आँकड़ा मुँहज़बानी ऐसे याद हो गया है जैसे कि यह हमारा मोबाइल नम्बर हो .सामाजिक सरोकार को लेकर ये एक यादगार एड कहा जाएगा.

फ़िल्म में शावक की जगह पर गबरू शेर भी दिखाया जा सकता था लेकिन ये जगज़ाहिर है कि बच्चे किसी एड फ़िल्म में ज़्यादा असर छोड़ते हैं और यहाँ भी वही फ़ार्मूला कारगर हुआ है. साथ ही यह संदेश भी जा रहा है कि कि अब हमें शेर की नई पीढ़ी को पालना पोसना होगा. हाँ चूंकि यह एयरसेल जैसी लोकप्रिय मोबाइल कम्पनी द्वारा प्रायोजित किया गया है तो यह प्रेरणा संदेश भी लाज़मी है कि शेरों को बचाने के लिये ब्लॉग लिखिये,एस.एम.एस.कीजिये…जो दर्शक या ग्राहक पर एक तरह की अप्रत्यक्ष मार्केटिंग भी इस ब्रांड की.

विज्ञापन में रूचि रखने वाले और विद्यार्थी नोट कर सकते हैं कि इस तरह के इश्तेहारों को पब्लिक सर्विस एडवरटाइज़िंग (पीएसए) कहा जाता है. यानी जनहित में जारी किये जाने वाले विज्ञापन. प्रायोजक को सीधे सीधे तो इस तरह के अभियानों से कोई बिक्री लाभ नहीं मिलता लेकिन ब्रांड रिकॉल या उत्पाद की याद अवश्य बनी रहती है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने विज्ञापन ख़र्च में पीएसए के लिये अच्छी ख़ासी राशि का प्रावधान भी करती है. इससे ग्राहक के मन में ब्रांड के लिये एक सहानभूति भी बनती है और जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि ब्रांड रिकॉल भी .

बहरहाल सेव अवर टाइगर्स को इन बरसों में जारी की गई एक अच्छा पब्लिक एडवरटाइज़िंग कैंम्पेन कहना होगा .ध्यान रहे ये फ़िल्म प्रिंट माध्यम में भी जारी हुई है लेकिन शावक को अपने टीवी सैट पर चलते फ़िरते देखने का अपना एक अलग सुख है. यह भी कहना चाहूँगा कि महेन्द्रसिंह धोनी और बाइचंग भूटिया जैसे सेलिब्रैटी का समर्थन इस अभियान को और व्यापक बनाता है .हाँ आपको समय मिले तो सेव अवर टाइगर्स वैबसाइट की सैर ज़रूर करें.

इश्तेहारानामा की पहली पोस्ट को मिला आपका प्यार सर आँखों पर . बहुत सारे विद्यार्थियों और विज्ञापन विधा में रूचि रखने वाले पाठकों ने अपनी जिज्ञासाएं मुझे ईमेल के ज़रिये भेजीं है जिनके जवाब अलग से लिख रहा हूँ.
टाइगर निसंदेह हमारी राष्ट्रीय धरोहर है और हम सब मिलकर ही इसे बचा सकते हैं.
फ़िर मिलते हैं

रविवार, 31 जनवरी 2010

कविता की तरह दिमाग़ में उपजते हैं विज्ञापन के शीर्षक

इश्तेहारनामा में आपका स्वागत है. इस नये ब्लॉग पर यह मेरी पहली पोस्ट है. पच्चीस बरस से ज़्यादा वक़्त हो गया एडरटाइज़िंग की दुनिया में काम करते हुए.इस बात की ख़ास तसल्ली है कि अंग्रेज़ी प्रभाव वाले इस व्यवसाय में हिन्दी में काम करते हुए अपनी पहचान बना पाया और रोज़ीरोटी भी कमा पाया. इस ब्लॉग को शुरू करने के लिये बहुत सारे मित्रों का इसरार था सो सबसे पहले उन्हें धन्यवाद.

इश्तेहारनाम में दुनिया भर में हो रहे विज्ञापनों की चर्चा करेंगे.हाँ भारत में हो रहे अभियानों की चर्चा तो होगी ही. इस ब्लॉग में हम न केवल जो हो चुका उसके भले/बुरे की बात करेंगे बल्कि विज्ञापन तकनीक और उसमें उपयोग होने वाली रचना प्रक्रिया और भाषावली की जानकारी भी बाँटेंगे.

तो बिसमिल्ला करते हैं शीर्षक से यानी हेडलाइन से. किसी भी विज्ञापन को पढ़ा जाए या नहीं यह अमूमन हेडलाइन से ही तय होता है. विज्ञापन दुनिया के भीष्मपितामह डेविड ओगिल्वी कहते हैं कि 80% लोग शीर्षक से ही तय करते हैं कि यह विज्ञापन पूरा देखा या पढ़ा जाए या नहीं यानी एकतरह से हैडलाइन विज्ञापन (जिसे मैं आगे कहीं कहीं एड भी लिखूंगा) का मुख्यद्वार है.

हैडलाइन को मैं नारा भी कह सकता हूँ ; हाँ बिल्कुल वैसा ही …जीतेगा भई जीतेगा..हाथ का पंजा जीतेगा…तो यह भी एक हैडलाइन ही कही जाएगी. अब यह कहाँ कैसे इस्तेमाल की जाती है और तब वह पंचलाइन,बेसलाइन ,कैचलाइन कैसे हो जाती है यह बात फ़िर कभी.

इस पहली पोस्ट उन्वान है कि कविता की तरह दिमाग़ में उपजते हैं विज्ञापन के शीर्षक…इसे साबित करने के लिये एक प्यारा सा वाक़या. मेरे अज़ीज़ दोस्त (आजकल न जाने कहाँ हैं)दिनेश शाकुल द्वारा सुनाई हुई आपको सुनाता हूँ;यक़ीनन आपको बहुत मज़ा आएगा. दिनेश शाकुल जानी मानी एड-एजेन्सी चैत्रा में थे और उन्होंने चर्चित धारावाहिक चाणक्य में चंद्रगुप्त और राग-दरबारी के रूप्पन का क़िरदार निभाया था. हाँ ये भी बताता दूँ कि वी.आई.पी.ट्रेवलाइट के लोकप्रिय विज्ञापन कल भी आज भी कल भी को दिनेश भाई ने लिखा था. आपको याद होगा इस इश्तेहार में अभिनेता आकाश खुराना रेल्वे स्टेशन पर किसी को विदा करते हुए गले से लगाते हैं और पार्श्व में ये गीत चलता है. ख़ैर! दिनेश भाई भी जब मुम्बई आए तो ख़ासा स्ट्रगल था. किसी बड़ी एड-एजेन्सी में बतौर कॉपी-राइटिंग के साथ फ़्रीलांस काम भी तलाशते रह्ते.दुकानों और शोरूम्स में ताँक-झाँक रहती कि कहीं कोई काम है क्या. एक शाम मुम्बई के कारोबारी इलाक़े कोलाबा से गुज़्रर रहे थे दिनेश भाई और एक लख़नवी टेलर शॉप में फ़र्नीचर का काम होते देखा. पूछा कोई काम हैं क्या ? विज्ञापन आदि का या निमंत्रण पत्र का मज़मून बनाना हो तो बताएँ.टेलर मास्टर बोले हाँ हमारी दुकान के लिये एक स्लोगन चाहिये.दिनेश शाकुल का प्रश्न था आपकी ख़ासियत क्या है.(ऐसा पूछने को ब्रीफ़ लेना कहते हैं) टेलर साहब बोले…बस कुछ विशेष नहीं साहब, जो ग्राहक चाहे बना देते हैं. एक बढ़िया सी लाइन दे दें.बोर्ड पर दुकान के नाम के नीचे लिख देंगे.बात सोमवार को हो रही थी और दुकान की शुरूआत होनी थे सप्ताहांत में यानी रविवार के दिन. शुक्रवार हो गया, दिनेश भाई को कुछ न सूझे क्या बताएं..रोज़ टेलर साहब के फ़ोन पर फ़ोन आ रहे…हमारा बोर्ड लगने वाला है आज .आज ही दे दें या रहने दें.दिनेश भाई ने सोचा काम हाथ से गया. उलझन में बिना कुछ तैयारी के शाम को दुकान पर पहुँचे.टेलर साहब से एक फ़टा सा काग़ज़ लिया और बस लिख दिया…
लखनवी टेलर….
आपकी मर्ज़ी के दर्ज़ी…

सोचिये जो काम पाँच दिन में न हुआ , पाँच मिनट में कैसे हो गया ? हुज़ूर !मैंने कहा था न विज्ञापन में भी भाषा या कॉपी कविता की तरह ही लिखी जाती है.
जल्दी मिलते हैं…..जै राम जी की.
चलते चलते आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के बहिष्कार को लेकर बनाया गया अमूल का इश्तेहार ये देखिये...